Friday 6 January 2017

अध्याय 3 ठा. देवीसिंह की गद्दीनशीनीं

ठा. देवीसिंह की गद्दीनशीनीं

ठा. महासिंह की मृत्यु पर हार्दिक शोक और संवेदना प्रकट करने महाराज स्वयं देवीसिंह के डेरे पर पहँुचा और स्वर्गीय महासिंह के एकमात्र पुत्र देवीसिंह को पिता के उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया गया।
ठा. देवीसिंह का जन्म 1721 ई. (वि.स. 1778 की आश्विन सुदि 14) को हुआ। ‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार शुक्ल चतुर्दशी को जिसका जन्म होता है वह पुरूष महाप्रतापी और भाग्यशाली होता है।मारवाड़़ देश की कहावत है ‘‘चाँदणी चैदस रो जायो बड़ो प्रतापीक हुवै ।’’ देवीसिंह पिता की विद्यमता में उनके साथ रहकर तेरह वर्ष की अवस्था में जोधपुर नरेश अभयसिंह की सेवा में संलग्न हो गया था।
1734 ई. में महाराजा अभयसिंह ने देवलिया राज्य पर अपनी सेना भेजी जिसमें महासिंह सेनाध्यक्ष था। देवीसिंह ने इस युद्ध में जो वीरता दिखाई उससे प्रभावित होकर महाराजा अभयसिंह देवीसिंह को सैन्य अभियानों में अपने साथ रखने लगा । 1740 ई. में गंगवाना के युद्ध में वह बख्तसिंह के साथ था तथा युद्ध में घायल भी हुआ। उसके 23 सैनिक मारे गए। पिता की मृत्यु के समय वह महाराजा अभयसिंह के साथ अजमेर में था। देवीसिंह को पिता की प्रधानगी का पद दिया गया। ठा. देवीसिंह को अपने पिता महासिंह का उत्तराधिकार दिए जाने के पश्चात् निम्नलिखित पट्टा इनायत किया गया।90
66083 महासिंह के समय के गाँव
10050 वृद्धि किए हुए गाँव
4000 खराटियों
400  जैसलमेर रो वास
1000 सोनेई
1300 कमारो वाड़ो
700  टांटियारो वाड़ो
1000  उत्तेसर
1250 ठाकरवास
            400  चरवड़ा रा वास 2
76,133   गाँव 82

कर्नल टाॅड ने ठाकुर देवीसिंह के विषय में एक बड़ी अनोखी बात कही। उसके अनुसार पोकरण, जो असीम साहसी चाम्पावत सम्प्रदाय की मुख्य भूमि था, के सामन्त महासिंह ने पुत्रहीन अवस्था में मरने से पूर्व महाराजा अजीतसिंह के दूसरे पुत्र देवीसिंह को गोद लेने के लिए अपनी स्त्री से कह गए थे। देवीसिंह गोद चले भी गए किन्तु राजपुत्र होने से उसे  अधिकार प्राप्ति की तृष्णा थी, किन्तु यह वृत्तान्त कतई उचित नहीं है, क्योंकि पोकरण के ठाकुरों के पुत्रहीन होने पर अपने निकटस्थ दासपों के चाम्पावतों में से किसी को गोद लेने की परम्परा थी। कोई राजा अपने किसी सामन्त को अपना पुत्र गोद दे यह भी अव्यावहारिक है।91
इन्हीं दिनों बीकानेर में उत्तराधिकार समस्या उत्पन्न हो गई। बीकानेर महाराज जोरावरसिंह के 1746 ई. में निःसन्तान स्वर्गवास हो गया।92 सरदारों ने जोरावतसिंह के काका आनन्दसिंह के बड़े पुत्र अमरसिंह के स्थान पर छोटे पुत्र गजसिंह को गद्दी  पर बैठा दिया। इससे नाराज होकर अमरसिंह ने अपने अनुज गजसिंह के विरूद्ध जोधपुर राज्य से मदद की गुहार लगाई। अभयसिंह ने चाँपावत अमरसिंह रणसी गाँव और भण्डारी रतनचन्द को सेना सहित बीकानेर भेजा, किन्तु ये दोनों सरदार मारे गए और जोधपुर की सेना पराजित होकर लौट आई।93 1747 ई. में अमरसिंह की सहायता के लिए ठाकुर देवीसिंह की अध्यक्षता में सेना भेजी। गजसिंह भी दलबल सहित मुकाबले में आ पहुँचा। युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। इसी दौरान मराठों की सेना ने मारवाड़़ पर धावा बोलकर लूटमार मचानी प्रारम्भ कर दी। इस पर ठा. देवीसिंह को तुरन्त बीेकानेर अभियान को बीच में ही त्यागकर अजमेर की ओर प्रयाण किया। सम्भवतः मारवाड़़ का सैनिक दबाव देखकर मराठे अपने आप वहाँ से चले गए।94
एक बार बख्तसिंह ने नागौर में अपने बड़े भाई अभयसिंह को प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। अभयसिंह वहाँ चला तो गया पर उसे भय सताने लगा कि कहीं बख्तसिंह पिता के समान उनकी भी हत्या न कर दे। तब देवीसिंह और करणीदान को सुरक्षा का भार सौंपा गया। जब शराब के नशे में चूर महाराजा पलंग पर लेटे हुआ था, तब ये दोनों इनका पहरा देते रहै। बख्तसिंह कोई न कोई बहाना बनाकर आता रहता, किन्तु उन्होंने उसकी दाल नहीं गलने दी  बख्तसिंह को निराश होना पड़ा।95
19 जून 1749 ई. को महाराजा अभयसिंह का देहान्त अजमेर में हुआ। उसके एकमात्र पुत्र और उत्तराधिकारी रामसिंह के विषय में महाराज ने पूर्व में सरदारों से प्रतिज्ञा करवाई थी कि वे हर हाल में बेसमझ रामसिंह के प्रति पूर्ण वफादार रहेगें। 13 जुलाई को रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा।96 प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण सरदारों ने रामसिंह की छिछोरी हरकतों की प्रारम्भ में उपेक्षा की, किन्तु रामसिंह में छोटापन अत्यधिक था। जनवरी-फरवरीए 1750 ई. मे गाँव भोजपुरा के मुकाम पर ठा. देवीसिंह को प्रधानजी का सिरोपाव, कड़ा मोती, पालखी वगैरह, लवाजमा इनायत हुआ।97
नागौर से राजाधिराज बख्तसिंह ने धायजी व धायभाई हरनाथ एवं पुरोहित विजयराज को टीके राज्याभिषेक पर सम्मानपूर्वक भेंट के हाथी, घोड़े देकर जोधपुर भेजा। अल्पबुद्धि महाराजा रामसिंह ने इस हाथी से मल्हारराव द्वारा भेंट किये गए हाथी से युद्ध करवाया । मल्हारराव द्वारा भेंट किए गए हाथी के जीतने पर उसे तोप से उड़ाने का हुकुम दिया। पर सरदारों के आपत्ति करने पर ठा. देवीसिंह को यह हाथी इनायत किया गया।98 वृद्ध धाय को देखकर रामसिंह क्रोधित हो गया। वह दरबार में कह उठा कि बख्तसिंह ने क्या मुझे बालक समझा है। उसने एक दूत बख्तसिंह के पास भेजकर उसे जालौर लौटा देने को कहा। इस घटना से राजाधिराज बख्तसिंह रामसिंह से नाराज हो गया।99
इधर दरबारी सामन्त भी एक एक कर उससे नाराज हो गए थे। रामसिंह ने एक नक्कारची अमीचन्द (अमिया) को दीवान बना दिया। वह सरदारों की नकले करवाता था। आउवा ठा. कुशालसिंह के सामने बन्दर छुड़वा दिया, जिसने ठाकुर का जामा फाड़ दिया और मूछों के पास नख लगाए। ऐसी हरकतों से ठाकुर नाराज होकर रवाना हुए उस समय रामसिंह ने उक्त नक्कारची को कहा ‘‘तू आवाज दे कि आहवे की भेड़ जाती है।’’ ढ़ोली ने वैसा ही किया। आग बबूला होकर ठाकुर वहाँ से चला गया।100 इस अवसर पर पोकरण ठाकुर ने कड़े शब्दों में रामसिंह से छोटे लोगों की सलाह और संगत में नहीं रहने के लिए कहा ।101 रामसिंह ने रीयंा ठाकुर शेरसिंह को अपना एक नौकर (बिजिया) देने को कहा तो वह भी नाराज होकर चला गया। रामसिंह ने नक्कारची अमीये, चाकर चांदा, चूड़ीगर सरपदीन, घसीयारे खूमी को कड़ा मोती व सिरोपाव दिए। अमिया को पाल गाँव का पट्टा दिया गया। राजपूत सरदार इन निम्न कोटि के सेवकों को इतना बड़ा सम्मान देने से अप्रसन्न थे।102 नाराज सरदार ठा. देवीसिंह के पास आए और स्पष्ट कहा कि यहाँ अब निर्वाह करना कठिन है। ठा. देवीसिंह ने उन्हें प्रतिज्ञा याद दिलाई और सरदारों को बाहर डेरा करने का सुझाव दिया। सरदार इसके लिए राजी हो गए तथा अपने डेरे बाहर कर दिए।103
महाराजा रामसिंह ने बजाय इन सरदारों को मनाने के अपने कृत्यों से उन्हें और नाराज कर दिया। रामसिंह के इशारे पर घोड़े की पूँछ के बाल काट दिए गए तथा तम्बुओं के डोरे काट दिए गए। सरदारों के लिए यह सब असहनीय था। ये सभी सरदार बख्तसिंह के पास नागौर चले गए जिसका रामसिंह के साथ पहले से ही कटु मनोमालिन्य चल रहा था। जब राजाधिराज बख्तसिंह को सरदारों के नागौर आने के समाचार मिले तब राजाधिराज तुरन्त घोड़े पर सवार होकर नागौर से सरदारों का स्वागत करने के लिए इमरतिया नाड़ा तक सामने आया और सरदारों को पूर्ण सत्कार किया तथा कहा कि ’आज जोधपुर का राज्य मेरे घर में है।104
इसके कुछ समय पश्चात् जब महाराज अपने ससुर और जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह से मिलने हँसपुर कोटड़ी गए, वहाँ राज्य के प्रधान देवीसिंह का घोर अपमान किया गया। रीति के अनुसार प्रधान होने के नाते जयपुर महाराज से पहले मुलाकात करने का अधिकार ठा. देवीसिंह को था, किन्तु जैसे ही वह मिलने को आगे बढ़ा, उसको महाराजा ने धक्का देकर पीछे हटा लिया और खींवकरण105 को आगे किया। इसके बाद अक्षय तृतीया के भोज के अवसर पर ठा. देवीसिंह को पुनः अपमानित किया गया, जब उसे परोसे गए थाल को हटाकर खीवंकरण के आगे रख दिया गया। ठा. देवीसिंह बिना भोजन किए कुछ अन्य सरदारों के साथ अपने डेरे चला गया। वह महाराजा रामसिंह का साथ छोड़कर रास और नींबाज की ओर आया।106
शीघ्र ही देवीसिंह की नाराजगी का समाचार नागौर पहुँच गया। राजाधिराज बख्तसिंह ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की, पर कुशालसिंह ने देवीसिंह के मार्फत चाम्पावत राठौड़़ों का सहयोग प्राप्त करने का सुझाव दिया। राजाधिराज ने कशालसिंह को स्पष्ट कहा कि ‘‘देवीसिंह मोटा सरदार है, मैं उसे बिना प्रधानगी के अपने घर में स्थान नहीं दे पाऊँगा।’’ कुशालसिंह ने तुरन्त अपनी प्रधानगी, जिसे  बख्तसिंह ने मारवाड़़ की गद्दी  मिलने पर वायदा किया था, देवीसिंह को सौंपने को तैयार हो गया।106 तत्पश्चात् ठा. देवीसिंह को अपने पक्ष में लाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए।ठा. देवीसिंह को प्रधान पद देने की पेशकश हुई।108 काफी मान मनवार के बाद वह बख्तसिंह के पक्ष में आ गया।109 बख्तसिंह की प्रार्थना पर बीकानेर नरेश गजसिंह 18000  सैनिकों सहित सहायता के लिए पहुँचा। किशनगढ़ का राजा बहादुरसिंह भी अपनी सेना के साथ बख्तसिंह की मदद के लिए आ पहुँचा। बख्तसिंह की गुप्त कार्यवाहियों की सूचना मिलने पर रामसिंह अपने पक्ष के सरदारों को लेकर बख्तसिंह को दण्ड देने को रवाना हुआ। इस अवसर पर सरदारों ने संधि करवाने का बहुत प्रयास किया पर असफल रहे। दिल्ली से बख्शी सलावतजंग बख्तसिंह की मदद को आया। ईश्वरसिंह और मराठे रामसिंह की मदद करने आए। सलावतजंग गर्मी व जल की कमी के कारण संधि करके लौट गया।110
दोनों पक्षों में 8 नवम्बर, 1750 ई. में सालावास में युद्ध हुआ। युद्ध में बख्तसिंह विजयी रहा। मारवाड़़ के सरदारों और बीकानेर तथा किशनगढ़ नरेशों के निरन्तर प्रयासों से जोधपुर शहर पर बख्तसिंह का अधिकार हो गया। जोधपुर गढ़ का किलेदार सुजाणसिंह जो ठा. देवीसिंह का ससुर भी था, को देवीसिंह ने कई प्रकार से समझाया। उसका सम्मान, पदवी यथावत रखने का वचन दिया। काफी समझाने पर सुजानसिंह ने रामसिंह की माता नरूकीजी के समक्ष कहा कि ‘‘जोधपुर के सभी सरदार रामसिंह के खिलाफ है तथा सरदारों ने किला घेर रखा है।अतः आप कहें तो किला या तो बख्तसिंह को दे अथवा अजीतसिंह के पुत्र रतनसिंह को सौंप दें। तब नरूकी जी ने कहा कि ‘‘बख्तसिंह और उसका पति दोनों अजीतसिंह की चैहान रानी से सहोदर है। इस प्रकार बख्तसिंह उसका देवर है। बख्तसिंह को राज सौंपने से राज जाएगा नहीं। इस प्रकार आठ दिनों के निरंतर प्रयासों के फलस्वरूप सुजाणसिंह ने नरूकीजी को किला खोलने को तैयार कर लिया। 21 जून, 1751 ई. बख्तसिंह ने हाथी पर बैठकर किले में प्रवेश किया। उस समय ठा. देवीसिंह उसके पीछे हाथी पर ख्वासी में चँवर लेकर बैठा।111
अगले दिन बख्तसिंह ने दरबार किया। इस अवसर पर बख्तसिंह ने बहुत से सरदारों को नई जागीरें दी और कई सरदारों की पुरानी जागीरों में वृद्धि भी की।112 ठा. देवीसिंह को इस अवसर पर प्रधान पद और सिरोपाव दिया गया।113 देवीसिंह को बधारा (ईनाम) पट्टा देने का प्रस्ताव किया गया, किन्तु उसने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि ‘‘उसके पास तो काफी है, जिनके पास कम है, उन्हें दी जाए।114 इस अवसर पर बख्तसिंह ने अपनी तलवार बाँधने की आज्ञा दी। सरदारों को यह बात अखरी। आसोप कुँवर  दलजी ने जब इस पर ऐतराज किया तो बख्तसिंह नाराज हो गए। इस पर आसोप ठाकुर कनीराम जी ने बख्तसिंह की तलवार बाँध दी। तत्पश्चात् सरदारों ने नजर निछरावल की।115 तलवार बँधाई इस बात का सूचक थी कि राजगद्दी पर स्वयं बख्तसिंह बैठने की मंशा रखते हैं। इसके पूर्व बख्तसिंह ने अपने सरदारों से स्पष्ट कहा था कि वह स्वयं नागौर चला जाएगा और राज्याभिषेक राजकुमार विजयसिंह का होगा, 116 किन्तु बाद में बख्तसिंह ने अपने नाम से टीके का मुहुर्त निकलवाया। यह बात कुछ सरदारों, विशेषकर आसोप कुँवर दलजी (दलपतसिंह) को कतई अच्छी नहीं लगी।117 एक दिन जब महाराज राजकीय भण्डारों का निरीक्षण कर रहे थे तथा दलजी ने सरदारों को सुझाव दिया कि ’क्यों न कोठार (भण्डार गृह) का द्वार बाहर से बन्द कर दें।118 वहाँ उपस्थित सरदारों में ठा. देवीसिंह ने उसे समझाया कि ‘‘पिता या पुत्र कोई भंी गद्दी  पर बैठे, इससे कोई  फर्क नहीं पड़ता  अपने तो राज्य आने वाला नहीं है। यदि ताला लगा देंगें तो ‘‘धणीखांणा’’ कहलाएंगें। तत्पश्चात् ठा. देवीसिंह ने सिंघवी फतैहचंद को अन्दर भेजकर बख्तसिंह को बाहर बुलवा लिया और दलजी को यह कह कर समझा दिया कि अभी बख्तसिंह का प्रताप बहुत ज्यादा है। इन्होंने अपने बलबूते पर जोधपुर लिया है। इन्हें अपनी इच्छा से कुछ भी करने का पूर्ण अधिकार है। अतः समय और परिस्थिति इस तरह की बात करने की दृष्टि से उचित नहीं है। दूसरे दिन जब दलजी के पिता कनीराम जी दरबार में आया तो बख्तसिंह ने उन्हें पूछा कि ‘‘धणीखांणा’’ की क्या सजा दी जाए। किन्तु आयु ज्यादा होने के कारण कनीरामजी कम सुनता था। इसलिए बख्तसिंह की कही हुई बात वह समझ नहीं सका। ठा. देवीसिंह ने कनीराम जी को पूरी बात समझाई।119 पुत्र को राजकीय कोप से बचाने के लिए  उसने अपने पुत्र को बीकानेर भेज दिया।120
21 सितम्बर, 1752 ई. को जयपुर के मालपुरा के निकट सींधली ग्राम में जयपुर महाराजा माधोसिंह की पत्नी और किशनगढ महाराजा की पुत्री द्वारा पहनाई गई तीव्र विषयुक्त पुष्पमाला के प्रभाव से महाराजा बख्तसिंह काफी बीमार हो गया।121 राजवैद्य ने भी जवाब दे दिया। अपने पिता अजीतसिंह की हत्या करने के कारण चारण कवियों ने बख्तसिंह की काफी आलोचना की थंी। इसलिए बख्तसिंह ने उनसे अप्रसन्न होकर उनके अनेक गाँव जब्त कर लिए थे। जब महाराजा मरणशय्या पर सो रहा था, उस समय ठाकुर देवीसिंह ने महाराजा से कहकर चारणों की आजीविका के गाँव बहाल करवा दिए। परन्तु उस समय कोई चारण उपस्थित नहीं होने के कारण ठा. देवीसिंह ने जल स्वयं अपने हाथ में ग्रहण कर लिया। क्षत्रिय संकल्प लेता है, देता नहीं, तो भी चारण जाति के हित के लिए यह असम्भव कार्य देवीसिंह ने किया। कुछ समय पश्चात् ही बख्तसिंह मात्र 13 माह के शासन के पश्चात्  इस नश्वर लोक को छोड़ गया।122
महाराजा बख्तसिंह की मृत्यु के समय राजकुमार विजयसिंह मारोठ में था। ठा. देवीसिंह समस्त सरदारों को लेकर मारोठ पहुँचा और महाराज की मृत्यु के समचार बताए। विजयसिंह को वही,ं गद्दी  पर बिठाकर राजतिलक का विधान किया। तदनन्तर विजयसिंह वहाँ से समस्त सरदारों के साथ मेड़ता नगर आया। ठा. देवीसिंह ने वहाँ पर महाराज से विदा मांगी, क्योंकि उसको गाँव भिटोरा में जाकर स्वयं विवाह करना था। उसने सोनगरा सरदारसिंह देवकरणोत की कन्या का पाणिग्रहण किया। विवाह पश्चात् वह महाराज के पास सीधे मेड़ता और तत्पश्चात् दोनों जोधपुर रवाना हुए।123 जोधपुर गढ़ की सिणगार चैकी पर जनवरी, 1753 ई. को औपचारिक रूप से विजय सिंह का राजतिलक हुआ।124
महाराजा बख्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् रामसिंह एक बार पुनः सक्रिय हो गया। जोधपुर पर पुनः अधिकार करने के लिए, उसने मराठे जयप्पा सिंघिया से गठबन्धन किया और मारवाड़़ पर चढ़ाई कर दी। बीकानेर नरेश गजसिंह और किशनगढ़ नरेश बहादुरसिंह, अपनी अपनी सेनाएं लेकर विजयसिंह की मदद को वहाँ आ गए ।
14 सिंतम्बर,1754 ई. को मेड़ता के निकट गंगारडे में दोनों पक्षों में हुए प्रथम युद्ध में महाराजा विजयसिंह की विजय हुई। मराठों को 7 कोस पीछे हटना पड़ा।125 विजय से उत्साहित कुछ सरदारों ने अगले ही दिन पुनः आक्रमण करने का सुझाव दिया। ठा. देवीसिंह ने अगले दिन युद्ध मुलतवी करने का सुझाव दिया क्योंकि अगले दिन महाराज बख्तसिंह का श्राद्ध था,126 किन्तु रास के केशरीसिंह ने जोश में कहा कि युद्ध में काम आएगें, उनका और महाराज बख्तसिंह का श्राद्ध शामिल ही होगा ।
शकुन भी एक ऐसी वस्तु है, जो भविष्य की सूचना कर ही देती है।127 तोपों का जखीरा आगे बढ़ ही रहा था कि एक बड़ी तोप को खींचने वाले एक बैल के चोट आ गई और वह नीचे गिर पड़ा। उस समय पड़िहार जैसा जो शकुन ज्ञान में प्रवीण था, कहा कि आज के दिन युद्ध नहीं किया जाए, शकुन मना करते है। केसरीसिंह ने फिर उत्साह से इस शकुन की उपेक्षा करते हुए कहा कि शत्रुओं कंे सींग उखाड़ फैकेगें विजय निश्चित ही हमारी ही होगी। बीकानेर महाराजा गजसिंह के साथ चलने वाले शकुनवेत्ता ने भी युद्ध नहीं करने की सलाह दी। तब महाराजा गजसिंह ने मुहता बख्तावरमल को भेजकर युद्ध एक दिन टालने का आग्रह किया, परन्तु इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। सेना ने अभी रणभूमि की ओर प्रयाण किया ही था कि उन्हें अपने ऊपर हजारों चीलें मण्डराती दिखी। तब शकुनज्ञों ने फिर कहा कि महाराजा से अर्ज करों की आज युद्ध नहीं किया जाए। युद्ध करने से हानि होगी। तब किशनगढ़ नरेश बहादुरसिंह, पाली ठाकुर प्रेमसिंह, कूंपावत छत्रसिंह व भाटी दौलतसिंह सभी ने मिलकर चाम्पावत देवीसिंह से कहा कि शकुनज्ञ युद्ध करने से मना करते हैं, इसलिए आप महाराज से युद्ध नहीं करने की प्रार्थना करें । ठा. देवीसिंह ने इन सरदारों की प्रार्थना पहँुचा दी। उसने सुझाव दिया कि यदि मराठों की सेना आ जाती है तो युद्ध कर लेगें, अन्यथा युद्ध कल करेंगें । महाराज भी एक बार तो इस विचार से सहमत हो गया, किन्तु केसरीसिंह ने बीच में पड़कर कहा कि ‘‘चीलें शक्ति का स्वरूप है तथा अपनी मदद ही करने आई है। ये सरदार लोग जानते हैं कि यदि युद्ध हुआ तो मरना पड़ेगा। इसी कारण से ये लोग ऐसी बातें कर रहे हैं। खाविंद घोड़े को आगे बढ़ाओं, आज हम मराठों को पराजित कर लूट लेंगें।’’128 केसरीसिंह के इस प्रकार के कड़वे वचन सुनकर ठा. देवीसिंह क्षोभ और गुस्से से वहाँ से लौट गया। उसे अपनी इस प्रकार की उपेक्षा की कतई उम्मीद नहीं थंी। सेना को आगे बढ़ने का आदेश हुआ।
जयप्पा सिंधिया ने राठौड़़ों की तोपों और बड़ी सेना देखकर उचित अवसर की प्रतिक्षा करना ठीक समझा। जल्द ही यह मौका भी उसे मिल गया। महाराज को बगैर सूचित किए चंदोल तोपखाने के गाड़ीवान बैलों को खोलकर समीप के एक तालाब में बैलों को जल पिलाने ले गए। फलस्वरूप तोपखाना मुख्य सेना से पीछे छूट गया।129 जयप्पा ने तुरन्त इस तोपखाने पर तीव्र आक्रमण किया। 130 इससे जोधपुर की सेना का व्यूह भंग हो गया। मराठों ने मारवाड़़ के तोपखाने पर अधिकार कर लिया।अब दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। मराठों की तोपों की मार के आगें मारवाड़़ की सेना तीतर बीतर हो गई। बहुत से राठौड़़ सरदार वीरगति को प्राप्त हुए।131
महाराजा अपने बचे हुए सैनिकों और सरदारों के साथ मेड़ता लौट गया और रात्रि में वहाँ से नागौर चल पड़ा132। नागौर तक वह बैलगाड़ी में आया था, किन्तु नागौर पहुँचने पर देवीसिंह ने अर्ज किया कि नगर में हाथी पर बैठकर प्रवेश करें। पहले तो महाराज ने यह कहकर हाथी पर बैठने से मना कर दिया कि मैं कौन सी विजय करके आया हूँ जो हाथी पर बैठं, किन्तु फिर ज्यादा अनुरोध किए जाने पर हाथी पर बैठकर नागौर में प्रवेश किया। ठा.देवीसिंह हाथी पर महाराज की ख्वासी में बैठा ।133
इधर जयप्पा महाराज विजयसिंह का पीछा करते हुए नागौर जा पहुँचा और नागौर का घेरा डाला। तब नागौर की सुरक्षा का भार ठा. देवीसिंह को दिया गया।134 यह मान्यता प्रचलित थी  कि ठा. देवीसिंह नागौर गढ़ के द्वार खुले रखता था और उसने प्रमुख दरवाजे के बाहर की तरफ स्वयं के डेरे लगा रखे थे। मराठों के इस 15 माह के घेरे के समय देवीसिंह और मराठों में अनेक छुट पुट युद्ध हुए जिसमें देवीसिंह के 18 घाव लगे135।
मराठों ने धीरे धीरे नागौर नगर का घेरा सख्त कर दिया जिससे वहाँ की रसद समाप्त होने लगी। किले में उपस्थित सरदारों ने तंग आकर जयप्पा को धोखे से मरवा दिया। 136 ठीक इसी समय राठौड़़ सेना ने भी आक्रमण कर मराठा सेना को भगा दिया।137 किन्तु दत्ताजी और जनकोजी सिन्धिया ने इस सेना को एकत्रित किया और पुनः नागौर पर घेरा डाला। रघुनाथराव  सेना सहित इनकी सहायता करने मारवाड़़ पहँुचा। जोधपुर और नागौर की सख्त नाकेबन्दी कर दी गई। विजयसिंह ने बीकानेर और जयपुर राज्य से सहायता प्राप्त करने की कोशिश की पर असफल रहा। इसी बीच मारवाड़़ में अकाल होने से संधि करना स्वीकार कर लिया।138 20 लाख रूपये और अजमेर प्रान्त मराठों को दिया गया तथा रामसिंह को मेड़ता, मारोठ, सोजत, जालोर आदि के परगने इस संधि के पश्चात् दिए गए। झगड़ा शान्त होने पर महाराज विजयसिंह जोधपुर लौट आया।139
1756 ई. में जिस समय रामसिंह जयपुर के स्वर्गवासी नरेश ईश्वरीसिंह की कन्या से विवाह करने जयपुर गया, उस समय महाराजा विजयसिंह और अन्य सरदारों ने रामसिंह के अधिकृत प्रदेशों पर आक्रमण करने का विचार चलाया। ठा. देवीसिंह ने इसका विरोध किया। इसका विचार था कि मराठों और उनके बीच हुई संधि को कम से कम एक वर्ष तक पालन करने का वचन दिया जा चुका है और इस अवधि के समाप्त होने में अभी 5 माह बाकी है, इसलिए अभी रामसिंह के प्रान्तों पर आक्रमण नहीं किया जाय,140 परन्तु अन्य सरदारों विषेशकर जग्गु धायभाई ने इस परामर्श का विरोध किया। विजयसिंह स्वयं भी रामसिंह के प्रान्तों पर आक्रमण करने के लिए उतावला था। अतः शीघ्र ही सेना भेजकर रामसिंह के प्रान्तों पर अधिकार कर लिया गया।141
इधर अपनी उपेक्षा से नाराज होकर ठा. देवीसिंह अपनी जागीर पोकरण चला गया।142 प्रधान होने के कारण ठा. देवीसिंह यह अपेक्षा करता था कि महत्वपूर्ण मामलों में उसकी राय को महत्त्व दिया जाए। गंगारडे के युद्ध के समय विजयसिंह ने रास ठा. केसरीसिंह के सुझावों को अधिक महत्त्व दिया गया। देवीसिंह इस वजह से पहले से ही नाराज था। इस बार पुनः रामसिंह पर आक्रमण किए जाने जैसे महत्वपूर्ण मामलें में उपेक्षा किए जाने से वह नाराज था। महाराज विजयसिंह से उसके मनमुटाव बढ़ने का एक अन्य कारण यह भी था कि महाराज दिन प्रतिदिन के प्रशासनिक कार्य स्वामी आत्माराम और जग्गू धायभाई के परामर्श से करते थे, जबकि ठा. देवीसिंह राज्य का प्रधान था।143
अपने क्षेत्र छिन जाने पर रामसिंह ने पुनः मराठों से सहायता मांगी। शीघ्र ही जयप्पा का भाई महादाजी मराठा सेना के साथ मारवाड़़ आ पहुँचा। युद्ध में विजयसिंह पराजित हुआ। मराठों को डेढ़ लाख क्षतिपूर्ति देनी पड़ी तथा रामसिंह के परगने लौटाने पड़े।144 1758 ई.  में महाराज ने अपने प्रधान देवीसिंह को अप्रसन्न रखना उचित नहीं समझकर  ड्योढ़ीदार गोविन्ददास को पोकरण बुलाने के लिए भेजा। ठा. देवीसिंह का क्रोध अभी तक शान्त नहीं हुआ था। उसने आने से इंकार कर दिया और कहा कि ‘‘महाराजा को केसरीसिंह (रास) अधिक प्रिय है, हमारी क्या आवश्यकता है?’’ जोधपुर लौटकर प्रतिष्ठित पुरूषों ने सारी बात विजयसिंह को बता दी और निवेदन किया कि इस कार्य के निमित्त ठा. केसरीसिंह को भेजा जाना चाहिए।145 विजयसिंह ने एक खास रूक्का भिजवाकर केसरीसिंह को बुलवाया और उसे पोकरण जाकर किसी भी प्रकार से ठा. देवीसिंह को मनाकर लाने के लिए कहा। महाराजा की आज्ञा से ठा. केसरीसिंह पोकरण गया। ठा.देवीसिंह ने उसकी अच्छी मेहमाननवाजी की। दूसरे दिन ठा. देवीसिंह के आदमियों ने केसरीसिंह के कर्मचारियों को कहा कि भोजन सामग्री तथा घोड़े के भोजन के लिए अपने आदमियों को भेजो। कर्मचारियों ने ठा. केसरीसिंह के समक्ष यह निवेदन कर दिया। केसरीसिंह ने ठा. देवीसिंह के आदमियों को बुलवाकर कहा कि ‘‘तू जाकर ठाकुर से कह दे कि मैं यहाँ मेहमाननवाजी करवाने नहीं बल्कि ठाकुर को जोधपुर ले जाने के लिए आया हूँ।’’ उन्होंने ठा. देवीसिंह के पास जाकर ज्यों का त्यों कर दिया। केसरीसिंह के जोश भरे वचन सुनकर देवीसिंह पुनः क्रुद्ध हो गया। उसने केसरीसिंह को कहलवा दिया कि ’’तुम मुझे भय दिखला कर ले जाना चाहते हो, मैं नहीं जाऊँगा। तुम वापस जोधपुर लौट जाओ।’’ ठा.केसरीसिंह ने जोधपुर लौटकर महाराजा को कह दिया कि ठा.देवीसिंह उससे द्वेष रखता है, तथापि आपकी आज्ञा की अवहेलना करके उसने अच्छा नहीं किया। महाराजा विजयसिंह ने भी पुनः देवीसिंह को बुलवाना उचित नहीं समझा।146
उन्हीं दिनों नींबाज ठा. कल्याणसिंह का स्वर्गवास हो गया तथा रास ठाकुर केसरीसिंह ने महाराज की बिना अनुमति लिए अपने पुत्र दौलतसिंह को उसके गोद बिठा दिया। विजयसिंह को यह बात बुरी लगी किन्तु समय को देखकर उसे चुप रह जाना पड़ा। फिर भी अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने के लिए उसने नींबाज की जागीर का एक गाँव पीपाड़ देने से इन्कार कर दिया। इससे केसरीसिंह नाराज हो गया। तत्पश्चात् बहुत से सरदारों ने नींबाज में इकट्ठा होकर रामसिंह से पत्र व्यवहार द्वारा षड्यन्त्र करना प्रारम्भ कर दिया ।147
अपने अधिकांश सरदारों के एक एक कर नाराज और असंतुष्ट होने से महाराजा विजयसिंह चिन्तित था। उसने सिंघवी फतैचन्द को भेजकर सभी सरदारों को जोधपुर आने को कहा। परन्तु ये लोग नगर के बाहर बख्तसागर तालाब के पास डेरे डालकर ठहर गए। अब तक पोकरण का ठा. देवीसिंह भी बख्तसागर पहुँच चुका था। महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वस्त सेवक जग्गू धायभाई को उन्हें समझाकर नगर में ले जाने के लिए भेजा जिससे सभी सरदार अपनी अपनी हवेलियों में डेरा कर लें।148
महाराजा का संदेश देने के लिए जग्गू धायभाई पालकी में बैठकर तथा 300 सेवकों के लवाजमे के साथ सरदारों के पास पहुँचा।149 उसकी इस शान शौकत को देखकर सरदार नाराज हुए।  उन्होंने प्रतिक्रिया की कि  ’क्या वह इस तरह जुलूस बनाकर हमें अपना वैभव दिखाता हुआ हम पर रौब डालना चाहता है ?’ इतने में पाली ठाकुर जगतसिंह व्यंग्यात्मक लहजे में बोल उठा ‘‘देखों बापड़ों बदरी रो बेटो जुलूस करने आवें है।’’ हलकारों ने तुरन्त ये वचन  तुरन्त धायभाई के कानों तक पहुँचा दिए। यह सुनकर जग्गू धायभाई को क्रोध तो बहुत आया पर उसने संयम रखना उचित समझा। वह सरदारों को प्रणाम कर उनके सामने बैठ गया। सरदारों ने अफीम की मनुहार की किन्तु उसने नहीं ली और कहा कि ‘‘अमल तो महाराज रो चाही ने।’’ इतना कहकर वह पाँंॅव पटकते हुए वहाँ से चला गया और सीधा महाराजा के पास आया। सामान्य शिष्टाचार करके उसने महाराज से  कहा कि ‘‘सरदार बहुत गर्वान्वित हो रहे हैं। आपको उनकी आवश्यकता हो तो आप स्वयं जाकर बुला सकते हैं। अन्य किसी के बुलाए तो वे नहीं आएगें।’’150
जग्गू की बातें सुनकर विजयसिंह अत्यधिक व्यथित  हुआ। तब तक सरदार अपने डेरे उठाकर बनाड़ गाँव चले गए। विजयसिंह ने सिंघवीफतैचन्द, जोधा रघुनाथंिसंह, चांपावत सूरतसिंह इत्यादि को असंतुष्ट सरदारों के पास भेजा। कुछ कहासुनी के बाद महाराजा की ओर से आए सरदारों को असंतुष्टों ने कहा, ‘‘पहले तो रामसिंह को हटाकर बख्तसिंह को गद्दी पर वापस बैठाने में 6 माह लगे थे। किन्तु अब रामसिंह को वापस बैठाने में केवल 6 दिन लगेगें।151 तब जोधा रघुनाथसिंह ने सरदारों से कहा कि ‘‘जोधपुर तो विजयसिंह के भाग्य में लिखा है, उसे कौन पलट सकता है।’’ इस पर ठा. देवीसिंह ने कहा कि ‘‘जोधपुर का राज्य मेरी कटार की पड़ढ़ली में हैं। मैं बनाऊँगा, वही, जोधपुर का राजा होगा।’’152 इस बातों से और अधिक मनमुटाव हो गया। सिंघवी फतैचन्द और सरदार पुनः जोधपुर आ गए तथा महाराज को असंतुष्ट सरदारों के विद्रोही तेवरों के विषय में जानकारी दी ।153
मामला अधिक बिगड़ता देख महाराजा विजयसिंह ने स्वयं सरदारों के समक्ष जाने का निश्चय किया। तभी सूचना आई कि सरदार बख्तसागर तालाब से रवाना होकर जोधपुर से 4 कोस दूर बनाड़ गाँव चले गए। विजयसिंह ने सोचा कि इस समय सरदार क्रोध के आवेश में आए हुए हैं। कहीं वे वापस अपने अपने ठिकाणों में न चले जाए, इसलिए उसने सरदारों के पास बनाड़ गाँव जाना निश्चित किया और बनाड़ पहुँचा। इतने में सरदार बनाड़ से रवाना होकर बीसलपुर गाँव चले गए, जो जोधपुर से 9 कोस की दूरी पर है। विजयसिंह को अब उन्हें मनाने बीसलपुर जाना पड़ा।154 महाराजा विजयसिंह को अपनी ओर आता देखकर सरदार स्वागतार्थ आगवानी करने डेढ़ कोस आगे आए। सम्भवतः सरदारों के महाराज के स्वयं मनाने आने की जानकारी नहीं थी। बीसलपुर गाँव की पाल पर बिछायत हुई, जिस पर विजयसिंह को बिठाया गया। महाराजा के डेरे शायबान बैलगाड़ियों पर लदे हुए होने के कारण पीछे रह गए थे और वहाँ खुले में ठण्ड आ रही थंी। महाराजा ने दो तीन बार डेरे शायबान नहीं पहुँचने के कारण के विषय में पूछा। तब ठा. देवीसिंह ने उसे अपने डेरे में जाकर विश्राम करने का निवेदन किया। विजयसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी। एक पालकी मंगाई गई। ठा. देवीसिंह ने पालकी को अपना कंधा दिया और अपने डेरे पर उचित आसन पर विराजमान करके पगचापनी की।155 इससे स्पष्ट होता है कि नाराजगी होने के बाद भी ठा. देवीसिंह की स्वामिभक्ति समाप्त नहीं हुई थी। महाराजा विजयसिंह के स्वयं आ जाने से यह बची हुई नाराजगी भी जाती रही।
तदनन्तर महाराजा विजयसिंह ने सभी सरदारों को बुलवाया। टाॅड महोदय के अनुसार महाराजा ने इस अवसर पर उपस्थित सभी सरदारों से प्रश्न किया ‘‘सामन्तों ने किस कारण से हमें छोड़ दिया है ?’’ इस पर ठा. देवीसिंह ने उत्तर दिया कि ‘‘महाराज हम लोग अनेक सम्प्रदायों से हैं पर भिन्न भिन्न देहधारी होकर भी हमारा मस्तक एक ही है, यदि हमारा कोई दूसरा मस्तक होता तो उसको आपके अधीन में अर्पण करते।’’ प्रसन्न होकर महाराजा विजयसिंह ने पूछा कि ’’किस प्रकार की व्यवस्था करने से सरदार पूर्व की भाँति राज्य की सेवा करने को राजी होंगे ?’’ विजयसिंह के इस प्रश्न पर सामन्तों ने उसी समय तीन प्रस्ताव प्रस्तुत किये
1. धायभाई के अधीन में जो वेतनभागी सेवा है, उसके अस्त्र छीन लिए जाएं, तथा उसे सदा के लिए विदा देनी होगी ।
2. पट्टा बही हमारे हाथ में देनी होगी।ं
3. किले के बदले नगर से राजकार्य किए जाएगें ।
सरदारों को एकजुट देखकर विजयसिंह ने इन तीनों प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया। जग्गू धायभाई के अधीन की वेतनभोगी सेना निरन्तर शक्तिशाली होती जा रही थी। इस सेना का उपयोग असन्तुष्ट सरदारों का दमन करने के लिए भी किया गया था। अतः सरदार इस सेना को समाप्त करवाना चाहते थे । मारवाड़़ में ठिकाणा प्रणाली के अधीन जिस प्रकार की सैनिक प्रशासनिक संरचना गठित की गई थी उसमें सेना केवल सरदारों की ही हो सकती थी। इस परम्परागत ढाँॅचे मेे वेतनभोगी सेना की बढ़ती शक्ति, सरदारों के परम्परागत अधिकारों पर प्रश्नचिन्ह लगाता था और उनके अस्तित्व के लिए एक खतरे के समान था। इसलिए विजयसिंह ने सरदारों की इस माँॅग को स्वीकार कर लिया, किन्तु सरदारों के दूसरे प्रस्ताव से उसे अवश्य खेद हुआ। भू-वृत्तिका या पट्टा देना अथवा भूस्वामी के ऊपर अधिकार राजा की प्रधान शक्ति है, सामन्तों ने इसी शक्ति पर प्रहार किया था। परन्तु नाराज सामन्तों को सन्तुष्ट करने के लिए उसने इसकी भी सम्मति दे दी।156
‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार महाराजा विजयसिंह ने ठा. देवीसिंह के डेरे पर विश्राम करके समस्त सरदारों को बुलवाया और उनसे कहा कि ‘‘तुम लोग नाराज क्यों हो रहे हो? इस तरह नाराज होकर जाने में दोतरफा भला नहीं है। देश बर्बाद हो जाएगा। प्रजा दुःखी हो जाएगी और तुम भी सुख नहीं पा सकते। इसलिए हमारा कहना है कि जोधपुर चलो और अपनी अपनी हवेलियों में डेरा करो। फिर जो कुछ तुम्हें कहना है, कह सकते हो। हम तुम्हें अप्रसन्न नहीं करेगे। हम राजा है, परन्तु किसके पीछे ? हमारी भुजा तो तुम हो, तुम्हारे ही बल पर हम शत्रुओं का नाश कर सकते हैं।’’ महाराज के मधुर वचनों से सरदारों की नाराजगी जाती रही।


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